ગુરુવાર, જૂન 30, 2016

गुब्बार

हां कभी बरसती है
अपनी पसंदकी बारीश,
मध्धमसी,
किसी अल्लड युवतीके
चांदीकी बिंदीयों से लदालद
लहराते  सफेद दुपट्टे जैसी.
उस बारीश के साथ
मन जैसे थिरकने लगता है,
छतोंसे टपकती बूंदोसे
जैसे पायलकी मधुर झंकार खनकती है,
और अंगडाइ लेकर
इक उमरावजान अंदरसे उठती है,
और पूछ बैठती है.
ये क्या जगह है दोस्तो, ये कौनसा दयार है,
हदें निगाह तक जहां गुब्बार ही गुब्बार है....!

विनोद नगदिया (आनंद)

ટિપ્પણીઓ નથી: