रोज़ ये मेट्रो
कई बार गुज़रती है मेरे सीने से,
सेंकडो लोगों से खीचोखीच भरी हुई,
कितने चेहरे....
कुछ जाने पहचाने, ज्यादातर अनजान,
जब भी मेट्रो पल दो पल ठहरती है
सिनेमें घंटी बजती है
मैं दौड़के पहुँच जाता हुं
और मिन्नते करता हूं
यहाँ उतर जानेकी
कुछ लोग मेरे सिनेके प्लेटफॉर्म पर उतर भी जाते है,
पल दो पल ठहरते भी है
और फिर निकल जाते है बाहर,
यह प्लेटफॉर्म फिर सुमसाम हो जाता है,
मैं फिर से इंतज़ार में बैठ जाता हुं,
घंटी बजने के ।
विनोद नगदिया (आनंद)
कई बार गुज़रती है मेरे सीने से,
सेंकडो लोगों से खीचोखीच भरी हुई,
कितने चेहरे....
कुछ जाने पहचाने, ज्यादातर अनजान,
जब भी मेट्रो पल दो पल ठहरती है
सिनेमें घंटी बजती है
मैं दौड़के पहुँच जाता हुं
और मिन्नते करता हूं
यहाँ उतर जानेकी
कुछ लोग मेरे सिनेके प्लेटफॉर्म पर उतर भी जाते है,
पल दो पल ठहरते भी है
और फिर निकल जाते है बाहर,
यह प्लेटफॉर्म फिर सुमसाम हो जाता है,
मैं फिर से इंतज़ार में बैठ जाता हुं,
घंटी बजने के ।
विनोद नगदिया (आनंद)
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